मुंबई, 28 अगस्त, (न्यूज़ हेल्पलाइन)। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि राज्य सरकारें राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा विधानसभा से पास बिलों पर लिए गए फैसलों को चुनौती देते हुए कोर्ट में याचिका दाखिल नहीं कर सकतीं। केंद्र का तर्क है कि संविधान का अनुच्छेद 32 केवल नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए है, न कि राज्यों के लिए। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत को बताया कि राष्ट्रपति यह जानना चाहती हैं कि क्या राज्यों को इस तरह का अधिकार प्राप्त है। उन्होंने यह भी कहा कि अनुच्छेद 361 के अनुसार राष्ट्रपति और राज्यपाल अपने निर्णयों के लिए अदालत में जवाबदेह नहीं हैं।
केंद्र ने यह भी दलील दी कि कोर्ट राष्ट्रपति या राज्यपाल को कोई आदेश नहीं दे सकती क्योंकि उनके निर्णय न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं आते। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा कि यदि कोई राज्यपाल छह महीने तक बिल लंबित रखे तो यह भी उचित नहीं है। इस मामले की सुनवाई सीजेआई बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच कर रही है। याचिका का उद्देश्य राज्य सरकारों की ओर से भेजे गए बिलों पर राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा हस्ताक्षर करने की समयसीमा तय करना है। 15 मई 2025 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143 के तहत इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी थी। उन्होंने अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों से जुड़े 14 सवाल अदालत के सामने रखे। यह विवाद तमिलनाडु से शुरू हुआ था, जब वहां के राज्यपाल ने विधानसभा से पास कई बिलों को रोककर रखा था। सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को अपने आदेश में कहा कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है और अगर बिल राष्ट्रपति को भेजा जाता है तो उस पर तीन महीने के भीतर फैसला किया जाना चाहिए। इसके बाद राष्ट्रपति ने अदालत से इस मामले पर मार्गदर्शन मांगा था।
हाल ही में हुई सुनवाई में भाजपा शासित राज्यों ने तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट किसी भी स्थिति में बिलों पर निर्णय की समयसीमा तय नहीं कर सकती। महाराष्ट्र की ओर से वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने कहा कि बिलों पर मंजूरी देना या रोकना केवल राष्ट्रपति और राज्यपाल का विशेषाधिकार है। वहीं, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज ने कहा कि इन संवैधानिक पदों को अपने विवेक से फैसला करने की पूरी स्वतंत्रता है और अदालतें इसमें दखल नहीं दे सकतीं। केंद्र सरकार का कहना है कि इस तरह के विवादों का हल अदालतों में नहीं बल्कि संवाद के जरिए निकलना चाहिए। उसने तर्क दिया कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में बातचीत और समझौते को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि निर्वाचित सरकारें राज्यपालों की मर्जी पर नहीं चल सकतीं और राज्यपाल अनिश्चितकाल तक बिलों को रोके नहीं रख सकते।