नागपुर न्यूज डेस्क: बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर पीठ ने डीएनए जांच को लेकर एक बेहद अहम फैसला सुनाया है। अदालत ने कहा है कि कोई पुरुष केवल इस संदेह में कि उसकी पत्नी का विवाहेत्तर संबंध रहा है, बच्चे की डीएनए जांच की मांग नहीं कर सकता। यह फैसला उस मामले में आया जिसमें एक व्यक्ति ने पत्नी पर व्यभिचार का आरोप लगाकर बेटे की डीएनए जांच कराने की मांग की थी।
यह मामला एक ऐसे पिता से जुड़ा था जो अपनी अलग रह रही पत्नी और 12 साल के बेटे को डीएनए जांच के लिए मजबूर करना चाहता था। फैमिली कोर्ट ने उसके इस अनुरोध को मंजूरी भी दे दी थी, लेकिन हाई कोर्ट ने उस आदेश को रद्द कर दिया। न्यायमूर्ति आर एम जोशी ने साफ शब्दों में कहा कि सिर्फ तलाक के मुकदमे में व्यभिचार का आरोप कोई ऐसा "विशेष मामला" नहीं बनता जिसमें बच्चे को डीएनए टेस्ट के लिए बाध्य किया जाए।
अदालत ने यह भी कहा कि व्यभिचार के आरोप साबित करने के लिए अन्य सबूतों का इस्तेमाल किया जा सकता है। डीएनए टेस्ट जैसे संवेदनशील कदम तभी उठाए जाने चाहिए जब मामला वास्तव में असाधारण हो। कोर्ट ने यह भी दोहराया कि किसी नाबालिग को उसकी इच्छा के विरुद्ध ब्लड टेस्ट के लिए मजबूर करना न केवल अनुचित है बल्कि उसके अधिकारों का भी हनन है।
यह फैसला हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि जब माता-पिता आपसी लड़ाई में उलझते हैं, तो बच्चों को भावनात्मक रूप से किस हद तक झेलना पड़ता है। अदालत ने दो टूक कहा कि कोर्ट की यह ज़िम्मेदारी है कि वो नाबालिग बच्चों के अधिकारों की रक्षा करें और उन्हें "मोहरा" न बनने दें। हाई कोर्ट का यह फैसला न सिर्फ बच्चे के हित को प्राथमिकता देता है बल्कि डीएनए जांच जैसे संवेदनशील विषय पर एक संवेदनशील दृष्टिकोण भी प्रस्तुत करता है।